पहचान 



भीड़ में खड़े होकर कभी पहचान नहीं बनती

निकलते है वहीं चहरे भीड़ से
जज्बा होता है जिनमे कुछ, अलग कर दिखाने  का
विश्वास  होता है, मंजिल अपनी को पाने का

और करते है साहस,  कदम पहला लेने का

क्यूंकि किस्मत भी जूं ही मेहरबान नहीं बनती
भीड़ में खड़े होकर कभी पहचान नहीं बनती

होते है जिस आँख में भरे सपने 
वो ना कभी सोती है 
हर जीत से पहले, ऐक हार भी होती है 
और होता है संघर्ष, जीवन भर का
क्यूंकि  ऐसे ही कोई शख्शियत  महान नहीं बनती  
भीड़ में खड़े होकर कभी पहचान नहीं बनती

छूते  हैं आसमान को  वो ही 

जो धरती से जुड़े रहते हैं

और  बुरे वक़्त में खड़े रहते हैं

करते है आदर, बड़ो  का

क्यूंकि बिना अपनों के राहें भी आसान नहीं बनती
भीड़ में खड़े होकर कभी पहचान नहीं बनती


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